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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शांति-1 मुंशी प्रेम चंद

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मई का महीना था। मैं मंसूर गया हुआ था कि गोपा का तार पहुचा तुरंत आओ, जरूरी काम है। मैं घबरा तो गया लेकिन इतना निश्चित था कि कोई दुर्घटना नहीं हुई है। दूसरे दिन दिल्‍ली जा पहुचा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी हो गई, निस्‍पंद, मूक, निष्‍प्राण, जैसे तपेदिक की रोगी हो।
‘मैंने पूछा कुशल तो है, मैं तो घबरा उठा।‘
‘उसने बुझी हुई आंखों से देखा और बोल सच।’
‘सुन्‍नी तो कुशल से है।’
‘हां अच्‍छी तरह है।’
‘और केदारनाथ?’
‘वह भी अच्‍छी तरह हैं।’
‘तो फिर माजरा क्‍या है?’
‘कुछ तो नहीं।’
‘तुमने तार दिया और कहती हो कुछ तो नहीं।’
‘दिल तो घबरा रहा था, इससे तुम्‍हें बुला लिया। सुन्‍नी को किसी तरह समझाकर यहां लाना है। मैं तो सब कुछ करके हार गई।’
‘क्‍या इधर कोई नई बात हो गई।’
‘नयी तो नहीं है, लेकिन एक तरह में नयी ही समझो, केदार एक ऐक्‍ट्रेस के साथ कहीं भाग गया। एक सप्‍ताह से उसका कहीं पता नहीं है। सुन्‍नी से कह गया है—जब तक तुम रहोगी घर में नहीं आऊँगा। सारा घर सुन्‍नी का शत्रु हो रहा है, लेकिन वह वहां से टलने का नाम नहीं लेता। सुना है केदार अपने बाप के दस्‍तखत बनाकर कई हजार रूपये बैंक से ले गया है।
‘तुम सुन्‍नी से मिली थीं?’
‘हां, तीन दिन से बराबर जा रही हूं।’
‘वह नहीं आना चाहती, तो रहने क्‍यों नहीं देती।’
‘वहां घुट घुटकर मर जाएगी।’
‘मैं उन्‍हीं पैरों लाला मदारीलाल के घर चला। हालांकि मैं जानता था कि सुन्‍नी किसी तरह न आएगी, मगर वहां पहुचा तो देखा कुहराम मचा हुआ है। मेरा कलेजा धक से रह गया। वहां तो अर्थी सज रही थी। मुहल्‍ले के सैकड़ों आदमी जमा थे। घर में से ‘हाय! हाय!’ की क्रंदन-ध्‍वनि आ रही थी। यह सुन्‍नी का शव था। मदारीलाल मुझे देखते ही मुझसे उन्‍मत की भांति लिपट गए और बोले:
‘भाई साहब, मैं तो लुट गया। लड़का भी गया, बहू भी गयी, जिन्‍दगी ही गारत हो गई।’
मालूम हुआ कि जब से केदार गायब हो गया था, सुन्‍नी और भी ज्‍यादा उदास रहने लगी थी। उसने उसी दिन अपनी चूडियां तोड़ डाली थीं और मांग का सिंदूर पोंछ डाला था। सास ने जब आपत्ति की, तो उनको अपशब्‍द कहे। मदारीलाल ने समझाना चाहा तो उन्‍हें भी जली-कटी सुनायी। ऐसा अनुमान होता था—उन्‍माद हो गया है। लोगों ने उससे बोलना छोड़ दिया था। आज प्रात:काल यमुना स्‍नान करने गयी। अंधेरा था, सारा घर सो रहा था, किसी को नहीं जगाया। जब दिन चढ़ गया और बहू घर में न मिली, तो उसकी तलाश होने लगी। दोपहर को पता लगा कि यमुना गयी है। लोग उधर भागे। वहां उसकी लाश मिली। पुलिस आयी, शव की परीक्षा हुई। अब जाकर शव मिला है। मैं कलेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे दिन पहले जो सुन्‍दरी पालकी पर सवार होकर आयी थी, आज वह चार के कंधे पर जा रही है! मैं अर्थी के साथ हो लिया और वहां से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पांव कांप रहे थे। मालूम नहीं, यह खबर पाकर गोपा की क्‍या दशा होगी। प्राणांत न हो जाए, मुझे यही भय हो रहा था। सुन्‍नी उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का केन्‍द्र थी। उस दुखिया के उद्यान में यही पौधा बच रहा था। उसे वह हृदय रक्‍त से सींच-सींचकर पाल रही थी। उसके वसंत का सुनहरा स्‍वप्‍न ही उसका जीवन था उसमें कोपलें निकलेंगी, फूल खिलेंगे, फल लगेंगे, चिड़िया उसकी डाली पर बैठकर अपने सुहाने राग गाएंगी, किन्‍तु आज निष्‍ठुर नियति ने उस जीवन सूत्र को उखाडकर फेंक दिया। और अब उसके जीवन का कोई आधार न था। वह बिन्‍दु ही मिट गया था, जिस पर जीवन की सारी रेखाएँ आकर एकत्र हो जाती थीं।

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